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बहुत कुछ है, जिस की पर्दादारी है!

(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

ऑपरेशन सिंदूर के बाद, राजस्थान में बीकानेर की अपनी सभा में प्रधानमंत्री मोदी, डॉयलागबाजी के अपने शीर्ष पर थे। यहां श्रोताओं की जोरदार तालियों के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने सिर्फ इसी का बखान नहीं किया कि कैसे ऑपरेशन सिंदूर के जरिए सफलता तथा सटीकता के साथ, पाकिस्तान में आतंकियों के अड्डों को तबाह कर दिया गया, उन्होंने इसका भी बखान किया कि किस तरह भारत ने पाकिस्तान के सीने पर ऐसा तगड़ा प्रहार किया था, जिससे पाकिस्तानी सेना लड़ाई रुकवाने के लिए बातचीत की प्रार्थना करने पर मजबूर हो गयी। भारत ने उसे अच्छी तरह समझा दिया है कि आइंदा उसके खिलाफ आतंकवादी हरकत की गयी, तो उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी ; पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी, पाकिस्तान की सेना को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी आदि। बहरहाल, डॉयलागों की इस शृंखला का सिरमौर था प्रधानमंत्री मोदी का सिंदूर वाला डॉयलाग — “अब तो मोदी की नसों में लहू नहीं, गरम सिंदूर दौड़ रहा है”!

चाहे यह सिर्फ संयोग हो या बरबस वास्तविक मंतव्य का सामने आ जाना, प्रधानमंत्री मोदी को बीकानेर की इस सभा के मौके पर, पांच साल पहले बालाकोट एअर स्ट्राइक के बाद राजस्थान में ही चुरू में हुई अपनी सभा खूब याद थी। यह तो सभी जानते हैं कि बालाकोट एअर स्ट्राइक पुलवामा के आतंकी हमले की पृष्ठभूमि में हुई थी, जिसमें सुरक्षा बलों के करीब चालीस जवान शहीद हुए थे। लेकिन, यह शायद ज्यादा लोगों को याद नहीं होगा कि चुरु की उक्त सभा से ही, जिसमें भी प्रधानमंत्री मोदी ने ‘देश नहीं मिटने दूंगा, देश नहीं झुकने दूंगा’ की प्रभावशाली डॉयलागबाजी की थी, पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रर्वाई के राजनीतिक और वास्तव में 2019 के आम चुनाव के लिए, दोहन के जबर्दस्त अभियान की शुरूआत हुई थी। बीकानेर की सभा से प्रधानमंत्री मोदी ने उसी सिलसिले के एक और चक्र की शुरूआत कर दी लगती है।

यह संयोग ही नहीं है कि सिंदूर के प्रतीक को सचेत रूप से इस अभियान के केंद्र में बनाए रखा जा रहा है। सिंदूर के प्रतीक का अगले कुछ ही महीने में होने वाले बिहार के विधानसभाई चुनाव के लिए और उसके कुछ और आगे, अगले साल के आरंभ में होने वाले बंगाल-असम के चुनावों के लिए विशेष महत्व है, हालांकि हिंदी सिनेमा से लेकर शिक्षा तथा सांस्कृतिक लेन-देन तक, प्रतीकों के सार्वदेशीकरण की प्रक्रिया में धीरे-धीरे सिंदूर, देश भर में विवाहिता के एक चिन्ह के रूप में स्थापित हो गया है, जोकि विडंबनापूर्ण तरीके से पितृसत्ता का प्रतीक भी है। इसीलिए, यह संघ परिवार के प्रिय प्रतीकों में से है, जो स्त्री के पूरे व्यक्तित्व को ही उसके वैवाहिक दर्जे में घटाने की कोशिश करता है। यह संयोग ही नहीं है कि संघ के इसी नजरिए को स्वर देते हुए, हरियाणा से भाजपा के सांसद, रामचंद्र जांगड़ा ने तो उन औरतों को, जिनके पतियों/पिताओं की पहलगाम में आतंकवादियों ने हत्या की थी, बाकायदा इसके लिए फटकारा है कि उन्होंने मौके पर “वीरांगना के भाव” का प्रदर्शन नहीं किया! सत्ताधारी पार्टी के सांसद के अनुसार, उनका वीरांगना के भाव का प्रदर्शन न कर के हाथ जोड़ना ही, उनके अपनों के काल का कारण बना। होना तो यह चाहिए था कि वे भलेे खुद शहीद हो जातीं, पर लाठी-डंडा जो भी मिल जाता, उसी से सामने से मुकाबला करतीं, पर वे तो हाथ जोड़े रहीं। बस संघ परिवार के नेता के इतना कहने की ही कसर रह गयी कि जब घर के पुरुष ही मार दिए गए, फिर इन महिलाओं के जिंदा रहने का क्या फायदा? यहां आकर सिंदूर के प्रतीक के उपयोग की वह प्रतिगामिता खुलकर सामने आ जाती है, जिसकी ओर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के आरंभ में ही कई नारीवादियों और जनतंत्रवादियों ने इशारा किया था।

पुन: जैसाकि मोदी राज में नियम ही बन गया है, इस अभियान के केंद्र में भी, सेना को हटाकर मोदी को लाया जा चुका है। यह, ऑपरेशन सिंदूर के फौरन बाद, 13 से 23 मई तक के भाजपा के देशव्यापी अभियान में पहले ही किया जा चुका था। अब जगह-जगह लगे होर्डिंगों, बैनरों पर, कहीं हवाई जहाजों के साथ, तो कहीं तोपों के साथ, सैनिक पोशाक में सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी हैं। बीकानेर की सभा के दो-तीन दिन बाद ही, प्रधानमंत्री गुजरात के दौरे पर निकल गए हैं, जहां रोड शो समेत तरह-तरह के उन्हीं पर केंद्रित कार्यक्रमों के जरिए, मोदी की छवि के गिर्द ऑपरेशन सिंदूर और उसमें जीत के दावों को पुख्ता किया जाएगा। यह शायद इसलिए और भी जरूरी है कि अभी चुनाव में थोड़ा सा वक्त बाकी है यानी हवा को अपेक्षाकृत ज्यादा दिन तक बनाए रखना है।

यह भी कोई संयोग नहीं है कि नीति आयोग की काउंसिल के मौके पर आयोजित, एनडीए के मुख्यमंत्रियों तथा उप-मुख्यमंत्रियों की बैठक ने, बाकायदा एक प्रस्ताव पारित कर, ऑपरेशन सिंदूर में सेना की भूमिका के साथ-साथ, प्रधानमंत्री के नेतृत्व की प्रशंसा की है। संभवत: इसी प्रस्ताव का रास्ता तैयार करने के लिए, मोदी सरकार ने सिर्फ सत्तापक्षीय मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाने का निर्णय लिया था, जिस पर विपक्षी पार्टियों ने इस आधार पर आपत्ति भी की थी कि चूंकि यह बैठक ऑपरेशन सिंदूर पर मुख्यमंत्रियों को ब्रीफ करने के लिए बुलायी जा रही थी, विपक्षी मुख्यमंत्रियों को इससे बाहर क्यों रखा जा रहा था। ऑपरेशन सिंदूर की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय राजनीतिक राय की एकता की जिस तरह की मांग सत्तापक्ष और मीडिया में उसके पक्षधरों द्वारा उठायी जा रही थी, यह भी उसके इकतरफापन का एक और उदाहरण था। लेकिन, नरेंद्र मोदी एकता के ऐसे तकाजों से रुकने वाले नहीं थे। उनकी निगाह अपनी प्रशंसा के प्रस्ताव पर थी और इसका नतीजा यह हुआ कि एकता की सारी लफ्फाजी के बीच सिर्फ सत्तापक्षीय मुख्यमंत्रियों-उप-मुख्यमंत्रियों की बैठक हुई, जिसने खुशी-खुशी उक्त प्रस्ताव पारित किया।

इस इकतरफापन का एक और भी बड़ा उदाहरण, विपक्ष के सारे आग्रह के बावजूद, मोदी सरकार का संसद का विशेष सत्र बुलाने के लिए तैयार नहीं होना और इसके बजाए, सांसदों के नेतृत्व में विभिन्न देशों में बहुदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने का था, जिसमें पुन: आतंकवाद के मुद्दे पर राष्ट्रीय राय की एकता का वही संदेश दिया जाना है। इन प्रतिनिधिमंडलों के लिए सत्तापक्ष द्वारा जिस तरह से विपक्ष से प्रतिनिधियों को चुना गया है, वह भी उसी इकतरफापन का एक और उदाहरण है।

बहरहाल, राष्ट्रमत की यह कथित एकता तब कथित राष्ट्रमत की तानाशाही का रूप ले लेती है, जब इसके सहारे तमाम सवालों को दबाया जाने लगता है, भले ही वे सीधे शासन को कटघरे में खड़े करने वाले सवाल न हों, जैसे पहलगाम में सुरक्षा चूक के सवाल और जम्मू-कश्मीर में धारा-370 के खत्म किए जाने के बाद से, आतंकवाद के आखिरी सांसें गिन रहे होने के ढपोरशंखी दावों के सवाल, जो सीधे शासन को कटघरे में खड़ा करते हैं। विपक्ष के नेता, राहुल गांधी जब सीमावर्ती इलाके में पुंछ में, भारत-पाकिस्तान के बीच घोषित-अघोषित युद्घ की विभीषिका झेल रहे लोगों से जाकर मिले, इसने प्रभावशाली ढंग से यह याद दिलाया कि युद्घ से प्रभावित होने वाले ये लोग भी इसी देश के नागरिक हैं। राजधानियों के फैसलों के नतीजे में इन सीमावर्ती इलाकों को जो झेलना पड़ता है, क्या राजधानियों के फैसलों में उसका समुचित या पर्याप्त हिसाब रखा जाता है? युद्घ संबंधी निर्णयों की इस कीमत की मौजूदा निजाम में शायद ही कभी चर्चा सुनाई देती हो। इसीलिए, प्रधानमंत्री मोदी के किसी भी भाषण, किसी भी बयान में, सीमावर्ती इलाकों के लोगों की इन मुश्किलों और कुर्बानियों का भी कोई जिक्र तक नहीं मिलता है। लेकिन, क्या सैन्य विकल्प का कोई भी फैसला करते हुए, इस कीमत को भी हिसाब में नहीं लिया जाना चाहिए।

ऐसा ही एक और मुद्दा, जिसे राहुल गांधी ने ही प्रभावशाली तरीके से उठाया है, युद्घ के वास्तविक नतीजों का है। मोदी सरकार, ऑपरेशन सिंदूर के खत्म नहीं होने के स्वांग की आड़ में, इसकी न्यूनतम प्रामाणिक जानकारियां तक छुपा कर रखने की कोशिश कर रही है कि इस लड़ाई में हमें क्या और कितनी कीमत चुकानी पड़ी है? सत्ताधारी पार्टी के पास एक ही रटा-रटाया जवाब है — यह ऐसे सवालों के जवाब देने का समय नहीं है। वास्तव में इसके पीछे मूल समझदारी यह है कि सरकार के सिवा और किसी को ऐसी जानकारी की जरूरत ही क्या है? दूसरी ओर मिट्टी में मिला देने से लेकर धूल चटा देने तक के दावों को अंतहीन तरीके से दोहराया जा रहा है। इस तरह एक ऐसा नैरेटिव गढ़ा जा रहा है, जिसमें सरकार और उसके गोदी मीडिया की ओर से बोलने वालों की मानें तो, भारत के लिए युद्घ की कोई कीमत ही नहीं है, जबकि पाकिस्तान के लिए इकतरफा तरीके से भारी कीमत है। इस तरह का असंतुलित विचार बाकायदा युद्घोन्माद को हवा दे रहा है। और यह युद्घोन्माद, संघ-भाजपा की मूल कार्यनीति के साथ बखूबी फिट बैठता है, हालांकि आपरेशन सिंदूर के शस्त्रविराम को अपने अनुयाइयों के ही गले उतरवाने में उन्हें भी अच्छी-खासी मशक्कत करनी पड़ी थी। दुर्भाग्य से कथित राष्ट्रमत की तानाशाही, विपक्ष के भी बड़े हिस्सों को इसी गाड़ी के पीछे घिसटने के लिए मजबूर करती नजर आ रही है। नसों में दौड़ते सिंदूर की डॉयलागबाजी, इसी सब पर पर्दा डालने का साधन है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

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