साहित्य जगत

सचमुच !प्रेम डगरियां टेढ़ी

ह्रदय में
अंगार विरह का
अधरो के शुष्क पर्ण पर
निस्वर गति करता बार- बार
तुम्हारा नाम।।

नहीं दग्धता का भान
बस! तुम्हारे नाम का गान सुनकर
मौन गुंजन, नयन बिंदु
कोरों से निकलकर,
सहसा गालों पर
सुकूं की थपथपी देते
मानों पुण्डरीक पंखुरियां बिखराते हो।
जो भर रही हो पवन झकोरे से
मुझे सहलाते,
समझाते
मेरी अचेतन अवस्था को
करने जाग्रत ।।

और तभी मैं!

सहेज लेती हूँ,
मेरे हावभाव
मेरी बिखरती,मचलती
रोती सी……मुस्कान को
अपने आँचल में।।
तीक्ष्ण पिपासित अधर,
चपला सी द्रुतगामिनी
नयनों की पुतलियां ढाक कर
अपनी चुनर से
और डूब जाती हूँ,
प्रेममय सरिता में।।

ये प्रीत भी ना
मौसम के तरह
कई रूप बदलती है
कभी मधुमास,
कभी ज्येष्ठ की तपती दुपहरी
कभी सावन भादों की झमाझम
कभी माघ सी भोरमयी आभा
ख़ुद ही खुद में खोई-खोई
अद्भुत है ये
प्रेम जगत की रीत
सबसे अनजानी दुनिया से परे।
बस! प्रियतम के प्रेम विरह में
खुद से विचारती,
बतलाती ,
छुईमुई
बावरी सी हुई
करती अनुभूति साजन की।
कभी-कभी किसी आहट पर ।।
और फ़िर!
ह्र्दयतल से सूखी फलियां
करती गायन
मानों……
मृदु मधुदाता ने
लगा लिया हो आसन।

ADD

 

हल्की चेतन अनुभूति कर
पवन जगाती
अरे! पगली यह भ्रम है ,
क्यों बनती अनजान
पर !!मन तो मन है ना
जो चकोर की भाँति
प्रिय शशि पर सम्मोहित हुआ
आसक्ति के अम्बर पर जड सा गया
सदा प्रतीक्षारत हुआ
करता है ,मन ही मन
प्रिय का आह्वान
कभी सपनों के मेलो में,
कभी तन्हा अकेले में
शब्द-शब्द को बिंधता
जोड़ प्रेम अनुराग
अलापता राग…………
सच मे प्रेम डगरिया टेढ़ी।।

मीनाक्षी पारीकw/oसुनिल पारीक
33ओमनगर ,खातिपुरा
जयपुर

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