दिल्ली: दो नावों की सवारी में आप हुई धड़ाम!
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(आलेख : राजेंद्र शर्मा)
आखिरकार, दिल्ली में वह हो गया, जिसकी बहुतों द्वारा आशंकाएं जताई जा रही थीं। भाजपा सत्तर में से 48 सीटें जीत गई। 27 साल के बाद उसे दिल्ली की सत्ता में निर्णायक तरीके से वापसी करने का मौका मिल गया। और बारह वर्ष बाद, दिल्ली के चुनाव में जनता का फैसला आम आदमी पार्टी नाम की उस नयी राजनीतिक पार्टी के खिलाफ आया है, जो राजधानी दिल्ली से ही धूमकेतु की तरह उठी थी, जिसका दिल्ली से ही अस्त होने की भविष्यवाणियां सुनाई देने लगी हैं। यह दूसरी बात है कि हालांकि आम आदमी को सिर्फ 22 सीटें मिली हैं और वह भाजपा से पूरे 26 सीटों से पिछड़ गयी है, फिर भी दोनों पार्टियों के वोट में सिर्फ 2 फीसदी का अंतर रहा है। इस चुनाव में भाजपा को जहां 45.56 फीसदी वोट मिले हैं, आम आदमी पार्टी को 43.57 फीसद वोट पर ही संतोष करना पड़ा है। बेशक, यह हमारी ‘जो पहले आए, सब ले जाए’ पर आधारित चुनाव प्रणाली की विचित्रता का हिस्सा है कि सिर्फ 2 फीसदी वोट के अंतर से भाजपा, आप से दोगुनी से ज्यादा सीटें पाने में कामयाब रही है।
हैरानी की बात नहीं है कि संघ-भाजपा, इस जीत को लेकर न सिर्फ बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं, बल्कि इस चुनावी जीत को भाजपा और मोदी राज के पक्ष में दिल्ली की जनता का जोरदार जनादेश साबित करने की भी कोशिश कर रहे हैं। इसके बल पर यह साबित करने की भी कोशिश की जा रही है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जो धक्का लगा था, देश की जनता अब अपनी उस भूल का ‘सुधार’ कर रही है, लोकसभा चुनाव के बाद से हरियाणा, महाराष्ट्र और अब दिल्ली में भाजपा की जीत, इसका जीता-जागता सबूत हैं। लेकिन, स्पष्ट जनादेश के ये दावे इस मायने में संदेहास्पद हैं कि न सिर्फ भाजपा को आम आदमी पार्टी के मुकाबले केवल 2 फीसदी वोट की बढ़त हासिल हुई है और भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां मिलकर भी, 47 फीसदी का आंकड़ा नहीं छू पाई हैं, भाजपा और उसके सहयोगियों के घोषित विरोध के मंंच के आधार पर चुनाव लड़ रही कांग्रेस को भी इस चुनाव में 6.34 फीसद वोट मिला है और उसका तथा आम आदमी पार्टी का वोट मिलकर ही पचास फीसदी के करीब हो जाता है। भाजपा के विरोध के आधार पर सीमित संख्या में सीटों पर चुनाव लड़ी वामपंथी पार्टियों का वोट भी जोड़ लिया जाए तो, भाजपा के विरुद्घ जनादेश का बल 50 फीसदी से ज्यादा वोट का हो जाता है।
बेशक, तिकोने मुकाबले में भाजपा के खिलाफ लड़ते हुए भी, एक-दूसरे के खिलाफ लड़ रही आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का वोट आपस में जोड़े जाने का चुनाव नतीजों के हिसाब से कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है। फिर भी, इस वोट का जोड़कर देखा जाना इसलिए प्रासंगिक है कि जैसा कि करीब दस महीने पहले ही हुए संसदीय चुनाव ने दिखाया था, इन पार्टियों का चुनाव के लिए साथ आना सिर्फ कोरी कल्पना का ही मामला नहीं था, बल्कि एक व्यावहारिक संभावना का मामला था। और जैसा कि देश में जनतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की परवाह करने वाली अनेक ताकतों तथा लोगों ने चुनाव से पहले ही आगाह भी किया था, संघ-भाजपा को सत्ता से दूर बनाए रखने के लिए, आम तौर पर तमाम संघ-भाजपा विरोधी ताकतों का और खासतौर पर आप तथा कांग्रेस का साथ आना, जरूरी था। इस आगाही का वजन लोकसभा चुनाव में भाजपा के दिल्ली में सभी सात सीटें एक बार फिर जीतने और पहले हरियाणा तथा उसके बाद महाराष्ट्र में उसका विजयरथ फिर से दौड़ पड़ने के प्रभावों को देखते हुए, और भी ज्यादा बढ़ गया था।
इस सब को देखते हुए, यह बात भी दर्ज करने वाली जरूर है कि आप को 22 सीटों पर जीत मिलने के अलावा कम से कम 13-14 सीटों पर आप और कांग्रेस का संयुक्त वोट, जीत के लिए काफी होता। यानी दोनों पार्टियां मिलकर चुनाव लड़ी होतीं तो, इसी गणित में भी चुनाव का नतीजा बदल सकता था। जाहिर है कि साथ मिलकर चुनाव लड़ने से जो राजनीतिक-चुनावी प्रभाव पड़ा होता, इस गणित को संघ-भाजपा के खिलाफ ही झुका सकता था। वास्तव में पिछले लोकसभा चुनाव में ही इसका भी सबूत मिल गया था, जब सभी सात सीटें जीतने के बावजूद, भाजपा के मत फीसदी में, 2019 के चुनाव के मुकाबले करीब 3 फीसदी वोट की कमी दर्ज हुई थी। भाजपा के वोट में इस कमी के पीछे एक बड़ा कारक, आप और कांग्रेस का मिलकर चुनाव लड़ना था। इसे देखते हुए, कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि दिल्ली में भाजपा की 27 साल बाद सत्ता में वापसी को संभव बनाने में, एक कारण आप और कांग्रेस का, संघ-भाजपा को समान रूप से विरोधी मानते हुए भी, उसके खिलाफ एकजुट नहीं हो पाना था। इंडिया के मंच की इस विफलता की जनतांत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष ताकतों को आने वाले समय में बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। याद रहे कि जनतांत्रिक विपक्षी मंच ने ऐसी ही विफलता का प्रदर्शन इससे पहले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान तथा बाद में हरियाणा जैसे राज्यों में भी किया था। इन सबसे पहले गुजरात, गोवा आदि राज्यों में भी जनतांत्रिक विपक्ष का ऐसा ही बिखराव देखने को मिला था। कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि आम चुनाव के बाद से इंडिया ब्लाक, राज्यों के स्तर पर इस बिखराव को दूर करने में कोई सुधार नहीं कर पाया है। यहां तक कि इसे देखते हुए मीडिया में अब इंडिया ब्लाक के ही अंत की भविष्यवाणियां भी की जाने लगी हैं।
फिर भी दिल्ली के चुनाव के नतीजों को सिर्फ या मुख्यत: आप और कांग्रेस के गठबंधन न कर पाने का नतीजा नहीं कहा जा सकता है। इसका सीधा सा कारण यह है कि 2015 और 2020 के विधानसभाई चुनावों में आम आदमी पार्टी ने जो झाडूमार जीत हासिल की थी, उसके पीछे अकेले उसकी ही पचास फीसदी से ज्यादा वोट की ताकत थी। पिछले विधानसभाई चुनाव में आम आदमी पार्टी को 53.57 फीसदी वोट मिले थे, जबकि भाजपा को 38.51 फीसदी वोट पर ही संतोष करना पड़ा था। लेकिन, ताजातरीन चुनाव में आम आदमी पार्टी का वोट, घटकर 43.57 फीसदी रह गया है यानी पूरे 10 फीसदी से घट गया है, जबकि भाजपा का वोट, करीब 7 फीसदी बढ़कर, 45.46 फीसदी हुआ है। इसी दौरान कांग्रेस का वोट 4.26 फीसदी से बढ़कर 6.34 फीसदी हुआ है यानी आप पार्टी के वोट में हुई गिरावट में से 2 फीसदी से ज्यादा वोट कांग्रेस के हिस्से में भी आया है। आप के वोट में करीब 7 फीसदी छीनने ने ही, इस चुनाव के नतीजे को निर्णायक रूप से भाजपा के पक्ष में झुकाया है।
आप पार्टी के दुर्भाग्य ये, उसके वोट में भाजपा का इतनी ही बड़ी सेंध लगाना, न केवल संभव था, बल्कि उसके सारे आधार पहले से मौजूद थे। दिल्ली के हाल के चुनावी इतिहास की जिस विशिष्टता को अनेक टीकाकार बार-बार रेखांकित करते रहे थे, आम आदमी पार्टी के दिल्ली के राजनीतिक मंच पर उभरने के बाद से, मतदाताओं के एक उल्लेखनीय हिस्से का लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में स्पष्ट रूप से भिन्न चुनाव करना था। जैसा कि हमने पहले ध्यान दिलाया, 2015 के चुनाव से विधानसभा में दिल्ली के मतदाताओं में आधे से ज्यादा आप पार्टी के पक्ष में मतदान कर, उसकी झाडूमार जीत सुनिश्चित करते रहे थे और दूसरी ओर, लोकसभा चुनावों में 2014 से ही आधे से ज्यादा मतदाता इसी प्रकार, भाजपा की झाडूमार जीत सुनिश्चित करते आए थे। लेकिन, आप पार्टी के दुर्भाग्य से लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ रहने के बाद, विधानसभा में आप पार्टी का साथ देने वाला यह मतदाता घट रहा था और उसका बढ़ता हुआ हिस्सा विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के पक्ष में जा रहा था। 2015 के चुनाव में ऐसा वोट 40 फीसदी माना गया था, जो 2020 के चुनाव तक घटकर 35 फीसदी रह गया था। इस चुनाव में यह हिस्सा और भी घट गया लगता है और दस महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव और अब हुए विधानसभा चुनाव के बीच, भाजपा के वोट में गिरावट घटकर 8 फीसदी के करीब ही रह गयी है।
इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि दिल्ली में आप की शानदार जीत की इमारत, बहुत हद तक संघ-भाजपा के समर्थन आधार पर ही खड़ी थी। कहने की जरूरत नहीं है कि इसे आम आदमी पार्टी के एक ऐसी मूलत: अराजनीतिक राजनीति मध्यवर्गीय परिघटना होने ने ही संभव बनाया था, जिसका अपने जन्म के समय संघ-भाजपा के साथ गहरा साझा रहा था। एक राजनीतिक पार्टी के रूप में दिल्ली में सत्ता में पहुंचने के बाद भी आप पार्टी ने सचेत रूप से अपनी अराजनीतिक-राजनीति की इस छवि को ही नहीं बनाए रखा था, संघ-भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति के साथ बुनियादी सहानुभूति का अपना रिश्ता भी बनाए रखा था। बहुसंख्यक सांप्रदायिकता और जातिवादी दमन, इन दोनों के तमाम पहलुओं पर और इसी प्रकार, आर्थिक नीति के अनेकानेक पहलुओं पर भी आप ने, ऐसा रुख अपनाए रखा था, जो संसदीय चुनाव में मोदी को चुनने वालों को, विधानसभा में आप को चुनने से रोकता नहीं था।
हैरानी की बात नहीं है कि दिल्ली में संघ-भाजपा के बढ़ते दबाव के सामने आप ने, मौन स्वीकृति की ओट लेने के बजाए, हिंदुत्व के अपने ही प्रारूप से लेकर, सवर्णत्व के अपने ही प्रारूप तक को सक्रिय रूप से आगे बढ़ाने का रास्ता अपनाया था। जम्मू-कश्मीर में धारा-370 के खत्म किए जाने के लिए समर्थन से लेकर, इस चुनाव के बीच आप के उम्मीदवारों के विहिप के त्रिशूल वितरण कार्यक्रम में बढ़-चढ़कर शामिल होने तक, इसके बेशुमार उदाहरण मिल जाएंगे। जैसा कि अब साफ हो गया है, इस सबने, जिसे आप के अवसरवादी रुख के रूप में प्राय: सभी टिप्पणीकार दर्ज करते आए थे, संघ-भाजपा के आप से अपनी आधारभूमि का हिस्सा छीनने की गति को तेज करने का ही काम किया। हिंदुत्व के समर्थन और भाजपा विरोध की दो नावों में एक साथ सवार होने की कोशिश में आप, बीच नदी में मुंह के बल गिर पड़ी है।
बेशक, आप के अंत की भविष्यवाणियां करने वाले इस अर्थ में गलत हैं कि इस चुनाव में भी आप को, भाजपा से सिर्फ 2 फीसदी वोट कम मिला है। फिर भी, इस हार से आप पार्टी के लिए अस्तित्वगत संकट पैदा हो जाने से इसलिए इंकार नहीं किया जा सकता है कि यहां से आगे आप को एक जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष राजनीति के संदर्भ में खुद को स्पष्ट रूप से पुनर्परिभाषित करने की चुनौती स्वीकार करनी ही पड़ेगी। वर्ना अब भी संघ-भाजपा के आधार पर अमरबेल बनकर फूलते रहने की कोशिश करेगी, तो आगे और भी तेजी से सूखती जाएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)