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गणतंत्र के अमृत काल की उपलब्धि : बदलना एक ‘अधिकार संपन्न नागरिक’ का ‘लाथार्थी प्रजा’ में!

(आलेख : सुभाष गाताडे)

महाराष्ट्र और झारखंड राज्य के चुनावों का ऐलान हो चुका है। दोनों राज्यों में अगले माह के अंत तक नई सरकार का गठन होगा। वैसे इस ऐलान के ऐन पहले एक कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार द्वारा महाराष्ट्र सरकार को भेजी गई लीगल नोटिस चर्चा का विषय बनी है।¹ इस नोटिस का फोकस महाराष्ट्र सरकार द्वारा आनन-फानन में हाल में शुरू की गयी ‘लाडकी बहिण’ (लाड़ली बहन) योजना से है, जिसके तहत महिलाओं को प्रतिमाह 1,500 रूपए दिए जाएंगे। याद रहे, लोकसभा चुनाव में जब महाराष्ट्र में भाजपा की अगुआई वाले गठबंधन को विपक्षी इंडिया गठबंधन की तुलना में कम सीटें मिलीं, तब इस योजना को शुरू किया गया है। नोटिस में कहा गया है कि सरकार का यह दावा कि इतनी मासिक सहायता महिलाओं के लिए काफी होगी, तथ्यों से परे है। इतना ही नहीं, ऐसी योजना खैरात पर निर्भरता की संस्कृति को बढ़ावा देती है और वह समूचे कल्याणकारी राज्य के विचार को खत्म कर देती है।

मुमकिन है कि इस मसले पर भी महाराष्ट्र राज्य सरकार अपनी चुप्पी बरते और अपारदर्शिता का सबूत दे, जैसा कि उसने इसके पहले भी किया था, जब महाराष्ट्र के लिए बनी परियोजनाएं और निवेश, तमाम दावों के साथ अचानक गुजरात भेज दी गयी थीं।² या बेहद गाजे-बाजे के साथ लोकसभा चुनावों के पहले खड़ा किया गया शिवाजी महाराज का पुतला अचानक धराशायी हो गया था।³

इस खास मामले में सरकार का जवाब जो भी हो, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस लीगल नोटिस ने बेहद जरूरी सवाल उठाए हैं। इसमें कहा गया है कि इस योजना के लिए सरकार ने प्रति वर्ष 46,000 करोड़ रूपए के खर्चे का अनुमान लगाया है और इसे पूरा करने के लिए रिजर्व बैंक आफ इंडिया से तीन हजार करोड़ रूपए का कर्जा भी लिया गया है। उनके मुताबिक यह योजना राज्य की वित्तीय स्थिति को और नाजुक कर देगी तथा उसका राजकोषीय घाटा तीन फीसद से 4.6 फीसदी तक पहुंच जाएगा।

वित्तीय तथा अन्य मामलों के अलावा इस नोटिस ने अन्य सवाल भी उठाए हैं। मसलन, महिलाओं के लिए बनी इस योजना से ट्रांसजेंडर  महिलाओं को बाहर रखा गया है और सबसे अहम बात यह है कि यह योजना राज्य और स्त्रियों के बीच के रिश्ते को भाई-बहन के गति विज्ञान में देखता है, जो संविधान निर्माताओं द्वारा निर्धारित नज़रिये को उलट देता है, जो इसे राज्य और नागरिक के बीच के संबंध के तौर पर देखते थे।

इस हस्तक्षेप को लेकर यह प्रतिक्रिया सबसे पहले सुनने को मिल सकती है कि इस योजना में अनोखा कुछ नहीं है। कहा जा सकता है कि मोदी की अगुआई में केन्द्र में सरकार बनने के बाद से ही ऐसी योजनाएं शुरू की जाती रही हैं। मिसाल के तौर पर पड़ोसी मध्यप्रदेश में शुरू की गयी ‘लाड़ली बहिना’ योजना की बात की जा सकती है — जिसे शिवराजसिंह चौहान की पूर्व सरकार ने शुरू किया था और बाद में कहा गया था कि भाजपा को लोकसभा चुनावों में जो जीत मिली, इसके पीछे इसी योजना का हाथ रहा है — जिसके तहत भी महिलाओं को हर माह कुछ निश्चित रकम दी जाती है।⁴

मुमकिन है, केन्द्र सरकार द्वारा 80 करोड़ भारतीयों के लिए हर माह पांच किलो अनाज देने की बात भी कोई कर सकता है, जो आने वाले पांच साल तक चलेगी।⁵ ऐसी योजनाओं की प्रचुरता का — जिनमें से कई योजनाएं विपक्षी पार्टी की सरकारों ने भी शुरू की हैं — मतलब यह कत्तई नहीं है कि हम उन सवालों को सामने न रखें, जो पहले उठे न हों। दरअसल इससे जुड़े अन्य मामलों के चलते उसकी अहमियत बढ गयी है।

बिना किसी पूर्व योजना के चुनावों के ऐन पहले शुरू की गयी इस योजना का मतलब यह भी है कि इससे सरकार की पहले से चली आ रही योजनाओं पर भी गहरा असर पड़ेगा। हाशिये पर पड़े जिन तबकों को पहले से सबसिडी दी जाती रही है, उसमें कटौती होगी या विलंब होगा। उल्लेखनीय है कि इस बात को सरकार के किसी आलोचक ने नहीं, बल्कि खुद केन्द्र सरकार के वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री नितिन गडकरी ने उठाया है। राज्य की पहले से चली आ रही नाजुक वित्तीय स्थिति का उल्लेख करते हुए उन्होने कहा है कि जब राज्य पहले से ही कर्जे में डूबा है, तो ऐसी योजना की व्यावहारिकता प्रश्नों के घेरे में है।⁶

अगर हम घटनाक्रम की तरफ गौर से देखें, तो यह साफ है कि राज्य ने अपने नागरिकों के हित से जुड़े मामले में निर्णय प्रक्रिया में उनकी सहभागिता से पूरी तरह इंकार किया है। दूसरे, जल्दबाजी में शुरू की गयी यह योजना एक तरह से नागरिकों की ‘बौद्धिक क्षमता’ को भी कम करके आंकती है और लोगों में आपस में ही संदेह और अविश्वास पैदा करती है।

इसका मतलब और कुछ नहीं, बल्कि नागरिक और जनतंत्र के बीच जो एक खास किस्म का रिश्ता बना हुआ है — जहां नागरिक अपने अधिकारों की मांग कर सकते हैं और जहां उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि अधिकार पहले से हासिल है, राज्य का कर्तव्य होता है कि वह उन्हें पूरी करे — को एक तरह से भंग कर देना या तोड़ देना है।

शायद हुक्मरानों को यह लगता है कि राज्य और नागरिक के बीच का रिश्ता अब पुराना हो गया है और उन्हें लगता हो कि पुराने दिनों में भी लौटा जा सकता है, जहां जनता को प्रजा माना जाता था और जो शहंशाहों और राजे-रजवाड़ों की कृपा दृष्टि पर निर्भर होती थी।

हम हाल के वर्षो में घटी उन घटनाओं को याद कर सकते हैं कि किस तरह देश की वित्तमंत्री ने एक सार्वजनिक वितरण योजना की दुकान पर दुकानदार को इसलिए डांटा कि उसने प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर नहीं लगायी थी⁷, या खुद प्रधानमंत्री मोदी ने ही एक जनसभा में ऐसी सहायता को लेकर जनता क्या सोचती है, इसका किस्सा बयान किया था।⁸

इस तरह आज हम यही देख रहे हैं कि गणतंत्र के 75वें वर्ष में एक आम नागरिक, जो अधिकार सम्पन्न व्यक्ति है, उसे राज्य की दया पर छोड़ा जा रहा है। यह एक किस्म के नए रिश्ते को स्थापित करना है, जहां नागरिक के बजाय वह एक लाभार्थी के तौर पर उपस्थित रहे।

दरअसल, 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही विश्लेषकों ने इस किस्म की संभावना प्रकट की थी। अपने पहले ही भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने ऐलान किया था कि उनकी सरकार गुड गवर्नेंस का सूत्रपात करेगी, जिसका सूत्र वाक्य होगा : ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन (मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस)’। यह बाहर से एक आकर्षित करनेवाला विचार था, लेकिन इसकी वास्तविकता लोगों के सामने उसी समय स्पष्ट हो गयी थीं।⁹ विश्लेषकों ने बताया था कि इसका मतलब है ‘कल्याणकारी खर्चों’ में कटौती करना या कम से कम आर्थिक तौर पर इस बात को स्थापित करना। यह एक गलत विचार है, क्योंकि इसके तहत नीति निर्माण में चुने हुए राजनीतिक प्रतिनिधियों के बजाय, बिना चुने गए विशेषज्ञों को वरीयता देने की बात थी।

बहरहाल, जहां पारदर्शिता, जवाबदेही, सशक्तिकरण या नागरिक सहभागिता जैसी बातों को इस ‘गुड गवर्नेंस के एजेंडा’ में शामिल किया गया था, लेकिन उनके सामने कोई ‘सामाजिक रूपांतरण का संदर्भ’ नहीं था, बल्कि वह ‘गुड गवर्नंस के नवउदारवादी विजन का ही हिस्सा था। ‘सशक्तिकरण’ का भी यहां अलग मतलब था। यहां उसका अर्थ था ‘टेक्नोलोजी या ई-गवर्नेंस’ के जरिए हाशिये के लोगों को ताकत प्रदान करना। अपने आलेख का अंत अग्रणी विश्लेषक और ‘हिन्दू’ के संपादक मंडल के सदस्य जी संपत ने यह कहते हुए किया था कि ‘गुड गवर्नेंस’ का मतलब होगा : ‘‘राजनीति — जो एक तरह से जनतंत्र की आत्मा होती है — को प्रबंधन से प्रतिस्थापित करना और ‘अधिकारों के बिना नागरिकता’ को बढ़ावा देना।¹⁰

हाल में ही विद्वानों और विश्लेषकों ने इस बात को साफ किया है कि किस तरह ऐसी योजनाएं एक अधिकार संपन्न नागरिक को प्रजा में या लाभार्थी में बदलती दिखती है या यह कल्याणकारिता किस तरह सामाजिक नागरिकता को बढ़ावा देने और एकजुटता कायम करने के मुक्तिकामी उद्देश्यों से तौबा करती है और नागरिकों को राज्य के एक अधिकारसंपन्न, अपना हक जताने वाले व्यक्ति के बजाए, एक निष्क्रिय लाभार्थी में तब्दील करती है, जो राज्य की खैरात का इन्तज़ार करता रहता है।¹¹

जाहिर-सी बात है कि कल्याणकारिता के इस मॉडल की पड़ताल आवश्यक है — जिसने एक तरह से आर्थिक संसाधनों के वितरण के संघर्ष का ही गैर-राजनीतिकरण कर दिया है और जनतंत्र को प्रभावित किया है — जहां हमारे सामने अधिकार संपन्न नागरिक नहीं, खैरात के इन्तज़ार में खड़े लाभार्थी हैं।

यह बात तय है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि गणतंत्र की 75वीं वर्षगांठ पर राज्य की ताकत नागरिकों को नयी प्रजा या लाभार्थी बनाने में ही खर्च होगी।

 

आलेख : सुभाष गाताडे
आलेख : सुभाष गाताडे

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता और न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से संबद्ध वामपंथी कार्यकर्ता है।)

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