(आलेख : राजेंद्र शर्मा)
यह नहीं भूलना चाहिए कि 2014 के चुनाव में जम्मू में अपने रिकार्ड प्रदर्शन के बावजूद, भाजपा 25 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर ही पहुंच पाई थी और पीडीपी के नेतृत्व वाली गठजोड़ सरकार के माध्यम से ही पहली बार जम्मू-कश्मीर में उसके हाथ सत्ता तक पहुंच पाए थे, जिसका प्रतिफल दिल्ली के उसके राज ने जम्मू-कश्मीर को छ: साल सीधे अपने तानाशाहीपूर्ण नियंत्रण में रखने और उसके ऊपर से राज्य का विशेष दर्जा खत्म करने, राज्य का दर्जा ही खत्म करने तथा उसके दो टुकड़े कर के दिया था।
इसी को कहते हैं, पहले ही ग्रास में मक्खी का गिरना। भाजपा को जम्मू-कश्मीर के विधानसभाई चुनाव के लिए अपनी 44 नामों की पहली सूची, जारी किए जाने के दो घंट बाद ही, हड़बड़ी में वापस भी लेनी पड़ गयी। बाद में राज्य में होने वाले तीन चरणों के चुनाव के पहले चरण के लिए, सिर्फ 15 नामों की सूची दोबारा जारी की गयी। पहले चरण के लिए जारी सभी पंद्रह नाम, अंतत: जारी सूची में जस के तस रहे हैं। बहरहाल, पहली सूची में जारी दूसरे चरण के चुनाव के 10 और तीसरे व अंतिम चरण के चुनाव के 19 उम्मीदवारों के नाम, फिलहाल वापस ले लिए गए हैं। याद रहे कि पहले चरण में कश्मीर घाटी के एक हिस्से और डोडा-किश्तवाड़ में कुल 24 सीटों पर मतदान होना है। हैरानी की बात नहीं होगी कि भाजपा अपनी सारी महत्वाकांक्षाओं और सारे पैंतरों के बावजूद, इस चरण में 15 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार उतारने की स्थिति में है। वास्तव में पहले से इसका अनुमान लगाया जा रहा था कि खासतौर पर कश्मीर घाटी की सीटों पर भाजपा, उल्लेखनीय संख्या में छोटी-छोटी पार्टियों के उम्मीदवारों से लेकर निर्दलीयों तक को अपना समर्थन देेकर खड़ा कर सकती है और उनमें से जो भी जीत कर आ जाएं, उनसे चुनाव के बाद की स्थिति में अपने सरकार के गठन को प्रभावित करने में मददगार होने की उम्मीद करेगी।
बहरहाल, नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के तमाम शीर्ष नेतृत्व की मोहर के साथ जारी सूची को हाथों-हाथ वापस लिए जाने की नौबत तब आ गयी, जब इस सूची में कुछ प्रमुख नामों की नामौजूदगी समेत, टिकट काटने और देने के कई फैसलों पर, खासतौर पर जम्मू संभाग में पार्टी के कार्यकर्ताओं की नाराजगी का ज्वार फूट पड़ा। भाजपा के जम्मू-कश्मीर राज्य अध्यक्ष, रविंदर राणा और पूर्व उप-मुख्यमंत्रीगण निर्मल सिंह तथा कविंदर गुप्ता के नाम सूची से गायब होने की ओर खासतौर पर पार्टी कार्यकर्ताओं का ध्यान गया था। दूसरी ओर, पिछले ही दिनों नेशनल कांफ्रेंस से दल-बदलकर भाजपा में आए, केंद्रीय मंत्री डा. जितेंद्र सिंह के भाई, देवेंद्र राणा के जैसे नामों की मौजूदगी भी नाराजगी का कारण बनी थी। और यह नाराजगी खासतौर पर जम्मू में, जहां से ही भाजपा की ज्यादातर उम्मीदें जुड़ी हुई हैं, उग्र विरोध प्रदर्शनों के रूप में सामने आई।
इस सिलसिले में यह जोड़ना भी अप्रासांगिक नहीं होगा कि उम्मीदवारों की जिस सूची से बहुत ही अनुशासित होने की दावेदार, भाजपा और उसके पीछे खड़े संघ के कार्यकर्ताओं का गुस्सा फूट पड़ा, उस पर स्वयं नरेंद्र मोदी की मोहर ही नहीं लगी हुई थी, यह सूची आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक और 2019 के अगस्त के आरंभ में धारा-370 तथा 35-ए खत्म किए जाने के साथ ही, जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा ही खत्म कर दिए जाने तथा उसे दो केंद्र-शासित प्रदेशों में बांटे जाने के कदमों से पहले तक, भाजपा के जम्मू-कश्मीर के इंचार्ज रहे, राम माधव को इस चुनाव से ऐन पहले वापस लाकर, राज्य में चुनाव का सर्वेसर्वा बनाए जाने के बाद आई थी। हैरानी की बात नहीं होगी कि इस नाराजगी में, दिल्ली से थोपे गए इस आरएसएस प्रचारक के निर्णयों के खिलाफ, खासतौर पर जम्मू के, जाहिर है कि हिंदू कार्यकर्ताओं का असंतोष भी हो। इसलिए, हाथ के हाथ भाजपा को सूची वापस लेकर, सिर्फ चुनाव के पहले चरण के लिए अपने नामों की सूची जारी करनी पड़ी, जिसमें और देरी की कोई गुंजाइश नहीं थी। इस प्रकरण से इसका कुछ अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि जम्मू में भी, जिसकी हिंदू आबादी के सांप्रदायिक धु्रवीकरण के भरोसे ही भाजपा चुनाव लड़ना चाहती है, हालात उसके लिए बहुत अनुकूल नहीं हैं।
इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि जैसा कि नेशनल कान्फ्रेंस के चुनाव घोषणापत्र पर और उसके साथ चुनाव गठबंधन करने की कांग्रेस तथा कुछ अन्य विपक्षी पार्टियों की घोषणा पर, अमित शाह समेत भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के तीखे हमले से स्पष्ट है, भाजपा इस चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के एक प्रमुख औजार के तौर पर, धारा-370 को खत्म करने के मोदी सरकार के ‘बड़े कदम’ का ही इस्तेमाल करना चाहती है। नेशनल कान्फ्रेंस के साथ कांग्रेस के गठबंधन के ऐलान के फौरन बाद जैसे भाजपा नेताओं ने कांग्रेस पर सवालों के तीर दागे हैं, जिनका सार यही है कि क्या वे नेशनल कान्फ्रेंस की तरह धारा-370 की वापसी के पक्ष में हैं, इसी को उजागर करते हैं। लेकिन, भाजपा के दुर्भाग्य से धारा-370 के खात्मे को लेकर, जम्मू के हिंदू भी अब उतने उत्साहित नहीं रह गए हैं, जितने पांच साल पहले रहे हो सकते हैं।
इसकी वजह यह है कि इसके जरिए कथित रूप से जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ ‘पूर्ण-एकीकरण’ के नाम पर, जमीनों तथा नौकरियों के मामले में मूल निवासियों को हासिल सुरक्षा को जिस तरह खत्म किया गया है, उससे जम्मू निवासियों को भी बढ़ते पैमाने पर इसका एहसास हुआ है कि इस सुरक्षा में उनके और कश्मीर के मुसलमानों के यानी जम्मू-कश्मीर निवासियों के साझे हित थे और उनके हितों में जो टकराव दिखाया जाता रहा था, वह झूठा था। यही वह चीज है, जो जम्मू में भाजपा के जमीनी नेताओं को, दिल्ली के फरमानों के प्रति ज्यादा से ज्यादा असंतुष्ट और एक हद तक अवज्ञापूर्ण बना रही है। कहने की जरूरत नहीं है कि छ: साल से ज्यादा से राज्य में सीधे दिल्ली का जो शासन चल रहा है, वह न सिर्फ जनविरोधी है बल्कि पूरी तरह से जन-प्रतिनिधित्वहीन भी है, जिसके खिलाफ कश्मीर ही नहीं, जम्मू में भी जनता के बीच काफी आक्रोश है। यह सब मोदी राज की लोगों को प्रभावित करने की सामर्थ्य को कुंद करता है।
दूसरी ओर, नेशनल कान्फ्रेंस तथा पीडीपी जैसी, जम्मू-कश्मीर की प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियों को, जिनका मुख्य जनाधार कश्मीर घाटी में है, राजनीतिक रूप से अछूत बना देने की संघ-भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद, तमाम विपक्ष जम्मू-कश्मीर के राज्य के दर्जे तथा इस राज्य के स्थायी निवासियों को हासिल रही सुरक्षाओं की वापसी के सवालों पर एक स्वर से बोल रहा है और इस तरह संघ-भाजपा के प्रचार के हथियारों को भोंथरा कर रहा है। इसके साथ ही चुनावी रूप से भी आम चुनाव के समय रही इंडिया गठबंधन की कतारबंदी को, जहां तक संभव हो, जारी रखने की भी कोशिशें की जा रही हैं और यह भाजपा तथा उसके घोषित-अघोषित सहयोगियों का रास्ता और मुश्किल बना देता है।
संघ-भाजपा और उसके साथ जुड़ी दिल्ली की मनमानी की चुनौती के खिलाफ विपक्ष की विचारधारात्मक एकता के रूप में गुपकर भावना अब भी सक्रिय है, जिसमें नेशनल कान्फ्रेेस तथा पीडीपी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के अलावा कांग्रेस और सीपीएम जैसी राष्ट्रीय पार्टियां भी शामिल हैं। इसी का नतीजा है कि गुपकर गठबंधन की तरह चुनावी तालमेल के रूप में समूचे विपक्ष की एकता भले ही व्यावहारिक नजर नहीं आए और भले ही चुनावी मैदान में पीडीपी के इंडिया गठबंधन से अलग से उतरने की ही ज्यादा संभावना हो और यहां तक कि इंडिया गठबंधन की बाकी पार्टियों के बीच भी जम्मू-कश्मीर की सभी 90 सीटों पर तालमेल में मुश्किलें हों, फिर भी ‘साझा शत्रु की पहचान’ पर आधारित विपक्ष की वृहत्तर एकता को भी, अनदेखा नहीं किया जा सकता है। यह अभी भी चुनाव के दौरान विपक्ष के बीच आपसी टकराव के क्षेत्र को कम से कम करने का काम कर सकता है। और इससे भी महत्वपूर्ण रूप से यह चुनाव के बाद, दिल्ली के एजेंट के तौर पर संघ-भाजपा के सत्ता तक पहुंचने का रास्ता तो रोक ही सकता है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि 2014 के चुनाव में जम्मू में अपने रिकार्ड प्रदर्शन के बावजूद, भाजपा 25 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर ही पहुंच पाई थी और पीडीपी के नेतृत्व वाली गठजोड़ सरकार के माध्यम से ही पहली बार जम्मू-कश्मीर में उसके हाथ सत्ता तक पहुंच पाए थे, जिसका प्रतिफल दिल्ली के उसके राज ने जम्मू-कश्मीर को छ: साल सीधे अपने तानाशाहीपूर्ण नियंत्रण में रखने और उसके ऊपर से राज्य का विशेष दर्जा खत्म करने, राज्य का दर्जा ही खत्म करने तथा उसके दो टुकड़े कर के दिया था। 2015 में पीडीपी-भाजपा सरकार के बनने के समय, वस्तुगत रूप से गैर-भाजपा सरकार की जो संभावना मौजूद थी और 2018 में जिस संभावना का रास्ता रोकने के लिए ही विधानसभा भंग कर राज्य पर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था, उस संभावना के वास्तविकता में बदले जाने का आवेग इस बार तो पहले से ही मौजूद है।
वास्तव में, नये सिरे से विधानसभाई सीटों के परिसीमन तथा आरक्षण व नामजदगी के प्रावधानों आदि के जरिए, विधानसभाई गणित अपने अनुकूल करने की अपनी तमाम तिकड़मों के बावजूद, सत्ता तक पहुंचने की खास उम्मीद न देखकर ही मोदी सरकार ने, केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर में आने वाली निर्वाचित सरकार के अधिकार छीनकर, सीधे दिल्ली से नियंत्रित लैफ्टीनेंट गवर्नर तंत्र को मजबूत करने की कोशिश की है और पहले से ही दिल्ली जैसी स्थिति बनाने की कोशिश की है। ऐसे दिल्ली राज से, जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल करने की तो क्या ही उम्मीद की जा सकती है! लेकिन, जम्मू-कश्मीर की जनता यह सब भी तो देख-समझ रही है। दिल्ली के खिलाफ जम्मू में भाजपा में बगावत इस सबसे अछूती नहीं हो सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)