शांति की बात अब विद्रोह है : युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद का मनोविज्ञान

(आलेख : डॉ. विक्रम सिंह)
पहलगाम में हुए घातक आतंकी हमले के बाद पूरा देश आतंकवाद के खिलाफ एकजुट दिखाई दिया. यह किसी भी देश के लिए एक सकारात्मक संकेत है कि वह एकता के साथ आतंक के खिलाफ लड़ने को तैयार है. लेकिन चिंता की बात यह है कि इसके साथ एक अजीब सा युद्ध उन्माद भी देखने को मिला.
यह बात दो घटनाओं के उल्लेख से बेहतर समझी जा सकती है. 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर एक तस्वीर सबसे अधिक साझा की जा रही थी, वह थी इस आतंकी हमले में मारे गए नौसेना अधिकारी विनय नरवाल की पत्नी हिमांशी की. लोग इस तस्वीर को अलग-अलग भावनाओं के साथ साझा कर रहे थे. अधिकतर लोगों ने अपनी सहानुभूति जताई और आतंकवाद से लड़ने की अपील की.
लेकिन कुछ लोगों, जिनमें ज्यादातर भाजपा के समर्थक शामिल थे, ने इस तस्वीर का इस्तेमाल सांप्रदायिक टिप्पणियों के लिए किया. कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि पूरा देश हिमांशी के साथ खड़ा है. लेकिन 1 मई को हालात अचानक बदल गए. जो हिमांशी कल तक सबकी प्रिय थीं, उनके खिलाफ ट्रोलिंग शुरू हो गई और सोशल मीडिया पर उनके प्रति घृणा का वातावरण बन गया. उनके खिलाफ लोग (ट्रोल) जहर उगलने लग गए.
दिवंगत अधिकारी की पत्नी के प्रति सहानुभूति अचानक घृणास्पद. हिमांशी की ‘गलती’ केवल इतनी थी कि उन्होंने 1 मई को करनाल (हरियाणा) में अपने दिवंगत पति के जन्मदिन पर आयोजित रक्तदान शिविर में अपील की थी कि ‘मैं किसी के प्रति कोई नफ़रत नहीं चाहता. यही हो रहा है. लोग मुसलमानों या कश्मीरियों के ख़िलाफ़ जा रहे हैं. हम ऐसा नहीं चाहते. हम शांति चाहते हैं और सिर्फ़ शांति. बेशक, हम न्याय चाहते हैं. बेशक, जिन लोगों ने उसके साथ गलत किया है, उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए.’
इसी दौरान एक और चेहरा लगभग रोज़ टीवी पर दिखाई देता रहा, एक शांत, संतुलित और नपे-तुले शब्दों में देश को टकराव की स्थिति से अवगत कराता रहा. यह चेहरा था विदेश सचिव विक्रम मिस्री का. वह बिना किसी उत्तेजना या आवेश के असल (सरकार के द्वारा तय की गई) स्थितियों को देश की जनता से साझा कर रहे थे. लेकिन जब उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य कार्रवाई को रोकने के लिए हुए समझौते की घोषणा मीडिया में की, तो देश का यह नायक भी नफरत फैलाने वाले युद्ध-उन्मादी ट्रोल्स का शिकार हो गए.
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, विक्रम मिस्री को सोशल मीडिया पर ‘देशद्रोही’ तक करार दिया गया. इतना ही नहीं, उनकी बेटियों को भी इस ट्रोलिंग का सामना करना पड़ा, उनकी निजी जानकारियाँ, यहां तक कि फोन नंबर तक सार्वजनिक कर दिए गए.
यह कोई स्वतःस्फूर्त होने वाली प्रक्रिया नहीं है कि जिनको देश के हीरो के रूप में प्रचारित किया जा रहा था यकायक वह खलनायक हो गए और जनता विशेषतौर पर आभासीय दुनिया में रहने वाले लोगो के नफरत के शिकार होने लग गए. यह भाजपा और हिंदुत्ववादी ताकतों के पिछले दशन के शासन का नतीजा है.
नफरत की राजनीति ने जनता में नफरत और युद्धोन्माद का मनोविज्ञान पैदा किया है
इस नफरत की राजनीति ने जनता, विशेष तौर पर एक हिस्से में एक ऐसा मनोविज्ञान पैदा किया है जिसका परिणाम नफरत और युद्धोन्माद है. लेकिन इस तरह का वातावरण किसी के नियंत्रण में नहीं रहता है. यह एक खतरनाक स्थिति है. यही वर्तमान में हमारे देश में हो रहा है. भाजपा और आरएसएस ने पिछले कई दशकों से बड़े ही सुनियोजित ढंग से अपने पूरे प्रचार तंत्र के उपयोग करते हुए समाज को यह शक्ल देने की कोशिश की है.
जब सत्ता हाथ में आ गई तो अपने राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए राज्य के तंत्र का प्रयोग करते हुए नफरत, हिंसा और युद्धोन्माद पैदा किया गया. लेकिन नफरत की राजनीति करना और देश चलना दो अलग अलग क्षेत्र है.
पहलगाम आतंकी घटना के बाद सैन्य टकराव के चार दिन के बाद जब देश की जनता के लिए बहुत जरुरी युद्धविराम की घोषणा विविन्न कारणों से सरकार को करनी पड़ी तो उन्मादी समूहों द्वारा इसकी भी तीखी आलोचना हुई और युद्ध के पक्ष में वाकायदा अभियान चलाया गया.
सरकारी पक्ष और मीडिया ने जो वातावरण तैयार किया था उसका नतीजा यही था कि युद्धविराम को देश की कमजोरी करार दिया जाने लगा. फ़िज़ा में एक ऐसा एहसास था जहां मानों मानवता थी ही नहीं था तो केवल युद्धोन्माद. लोग अपने फोन और कंप्यूटर के सामने बैठे वीरता दिखा रहें थे लेकिन युद्ध पीड़ितों के लिए कोई संवेदनाएं नहीं थी.
हालांकि, इस संकट की स्थिति में भी देश में धर्म के आधार पर नफरत फैलाई गई. वैसे तो भाजपा और आरएसएस के संगठनों ने सेना के नाम पर राजनीति का जैसे ठेका ले रखा है लेकिन अपने देश के बहादुर फौजी अफसरों को उनके धर्म के कारण भाजपा के एक मंत्री ने कर्नल सोफिया कुरैशी को आतंवादियो की बहन तक कह दिया, जिसका संज्ञान अदालत को लेना पड़ा.
इस घटना में भी भाजपा और सरकार बेशर्मी से आरोपी मंत्री को बचाने में लगी है. लेकिन यहां हम इस पहलू पर चर्चा नहीं कर रहें है. हम समझने की कोशिश कर रहे है कि देश में कैसा घातक युद्धोन्मादी फैला हुआ है और युद्धोन्मादी भीड़, ने इस सोच की जनक भाजपा को भी नहीं छोड़ा. स्थिति इतनी भयानक हो गई है कि आम जनता तो छोड़ दीजिये तथागथित प्रगतिशील भद्रजन भी युद्ध के खिलाफ सैद्धांतिक रुख नहीं ले रहे थे.
हमारे देश में युद्ध के खिलाफ सैद्धांतिक आवाज उठाने की एक स्वस्थ परंपरा रही. देश का छात्र और युवा आंदोलन तो विशेष तौर पर युद्ध के मानवीय संकट को लेकर मुखर रहा है. लेकिन इस मर्तबा देश का युवा और छात्र तो युद्ध के लिए उन्मादी हो रहा था. ऐसा वातावरण बनाया गया कि युद्ध के साथ खड़ा होना ही देश प्रेम की कसौटी बन गया है. इसका बड़ा कारण हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा निर्मित वातावरण है तो साथ ही इन्ही ताकतों की हिंसा और नफरती अभियानों का डर भी निर्णायक भूमिका में है.
यहां यह स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है कि आतंकवाद के खिलाड़ लड़ाई बहुत महत्वपूर्ण है और हम इसके साथ खड़े है. आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता, वह किसी भी धर्म के हो सकते है. दहशतगर्द न तो इंसान होते है और न किसी देश के, वह सब देशो में हो सकते है. पहलगाम में किये गए हमले के आंतकवादी भी इसी श्रेणी में आते हैं. लेकिन चाहे वह किसी भी देश से आ रहे हो हम उनके खिलाफ है, उनके खिलाफ मज़बूती के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी.
देश की जनता एक एकजुटता और देश की सुरक्षा
इसमें देश की जनता एक एकजुटता बहुत महत्वपूर्ण है. पहलगाम और कश्मीर के स्थानीय लोगो ने भी अपनी तरफ से आंतकवाद के मक़सद को हरा दिया. उन्होंने अपनी इंसानियत से जिस तरह हमले के पीड़ितों की मदद की वह आंतकवाद को बड़ा झटका था, साथ ही सन्देश था सांप्रदायिक नफरती गैंग को कि हमला चाहे देश के किसी भी नागरिक पर हो, दर्द पूरे देश को होता है.
आंतकवाद के खिलाफ लड़ाई का दूसरा पक्ष है देश की सुरक्षा का. इसमें देश की तमाम रक्षा, पुलिस और खुफ़िया एजेंसियों को समन्वय के साथ काम करना जरुरी है. इसमें खुफिया एजेंसियां की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. एक छोटी सी चूक से भी बड़ी आतंकी घटनाएं हो सकती हैं. आतंक के खिलाफ जंग में राजनीतिक मंशा और वार्तालाप भी बहुत महत्वपूर्ण है.
अब चर्चा तो यह भी होनी चाहिए थी कि पहलगाम हमले में हमारी खुफिया एजेंसियों की मुस्तैदी में तो कोई चूक नहीं हो गई, लेकिन वर्तमान समय में इस पर बात करना भी देशद्रोह की श्रेणी में आ जाता है.
महत्वपूर्ण बात जिसे बार-बार दोहराने की जरुरत है वह है कि युद्ध रोकना बहुत ही जरुरी था, इसके लिए तमाम प्रयास किये जाने चाहिए थे लेकिन इसके लिए अमरीकी साम्राज्यवाद की मध्यस्थता कतई गवारा नहीं. हमारे देश की जनता जिसका साम्राज्यवाद के खिलाड़ संघर्ष की एक गौरवशाली इतिहास है, ने अमरीका की मध्यस्थ की इजाज़त नहीं दी थी.
हमारे देश की जनता के अपने अनुभव है साम्राज्यवाद के शोषण और उसके खिलाफ कुर्बानियों के, इसलिए हमारे देश के राष्ट्रप्रेम का एक एक अभिन्न हिस्सा साम्राज्यवाद का विरोध रहा है. डोनाल्ड ट्रंप ने एक बार नहीं कई बार इस बात का दावा किया लेकिन हमारे देश की सरकार द्वारा इसका पुरजोर खंडन न करना, कई चिंताएं पैदा करता है.
यह एक राजनीतिक हार भी है क्योंकि अभी तक हमारे देश ने कश्मीर के मुद्दे पर अमरीका सहित किसी भी देश की मध्यस्ता स्वीकार नहीं की है. यहां यह भी उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि अमरीका पूरे विश्व में संप्रुभ देशो के खिलाफ अन्यायपूर्ण सैनिक कार्यवाहियों और युद्दों के लिए कुख्यात है. वर्तमान समय में इसराइली युद्ध में फिलिस्तीन की जनता के नरसंहार में अमरीका की सक्रिय और बराबर की जिम्मेवारी है.
शासक वर्ग युद्ध का हमेशा अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करता है
हमारा मानना है कि हर युद्ध का एक वर्गीय चरित्र होता है और उसका प्रभाव समाज के विभिन्न वर्गों पर अलग-अलग पड़ता है. मूल बात यह है कि शासक वर्ग युद्ध का हमेशा अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करता है. इतिहास में यह एक स्थापित तथ्य है कि शासक वर्ग ने आर्थिक संकटों से उबरने के लिए अक्सर युद्ध का सहारा लिया है. हथियारों की बिक्री के माध्यम से उन्होंने भारी मुनाफा कमाया है.
युद्ध, जो मानवता के लिए एक गंभीर संकट होता है, कॉर्पोरेट जगत के लिए एक अवसर बन जाता है. इस विषय पर कई उच्च गुणवत्ता वाले शोध उपलब्ध हैं. वर्तमान सैन्य टकराव में भी हमने देखा है कि किस प्रकार हथियार निर्माण से जुड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों, जिनमें से अधिकांश पश्चिमी देशों की हैं, के शेयर बाजार में उतार-चढ़ाव देखने को मिला है.
हमारा मानना है कि शासक वर्ग मुनाफे के लिए युद्ध करवाता भी है लेकिन अगर जरुरत पड़े तो मुनाफे के लिए युद्ध रुकवा भी सकता है. यही कारण है कि एशिया के इस हिस्से में अमरीका युद्ध रुकवाने की घोषणा कर रहा है लेकिन फिलिस्तीन के खिलाफ इसराइल के अन्यायकारी युद्ध में फिलिस्तीन जनता की नस्ल को ख़त्म करने की भी घोषणा कर रहा है.
दूसरी तरफ जनता को युद्ध में दर्द और तकलीफो के सिवाय कुछ नहीं मिलता. युद्ध में मरने वाले सैनिकों के परिवार समझ सकते है कि युद्ध की क्या कीमत होती है. युद्ध में विस्थापित होने वाले परिवारों के जीवन कई वर्षो तक पटरी पर वापिस नहीं लौटता. मेहनतकशों का रोजगार चिंता है वो अलग. इस सब के ऊपर जनता के मुद्दे वर्षो तक राजनैतिक चर्चा से गायब हो जाते है. मीडिया तो वैसे ही जनता के मुद्दों को बेमानी समझती है.
युद्धोन्माद को इस कदर बढ़ा दिया है कि प्रगतिशील तबका भी शांति की बात करने से डर रहा है
सारांश में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भाजपा/आरएसएस की सुनियोजित राजनीति ने युद्धोन्माद को इस कदर बढ़ा दिया है कि प्रगतिशील तबका भी शांति की बात करने से डर रहा है. वर्तमान भारत एक ऐसे संकट के दौर से गुजर रहा है जहां युद्ध की भाषा को देशभक्ति, और शांति की भाषा को देशद्रोह की तरह पेश किया जा रहा है.
भाजपा और आरएसएस की नफरत पर आधारित राजनीति ने न केवल आम जनता में, बल्कि बुद्धिजीवियों और प्रगतिशील तबकों में भी एक ऐसा भय पैदा कर दिया है कि वे खुलकर शांति और विवेक की बातें करने से कतराने लगे हैं. लेकिन हमें यह समझना होगा कि युद्ध का सबसे बड़ा बोझ मेहनतकश जनता, सैनिकों के परिवार और आम नागरिकों पर पड़ता है, जबकि मुनाफा हथियार उद्योग और शासक वर्ग के हाथ में जाता है.
ऐसे दौर में, जब तथाकथित राष्ट्रवाद का मतलब ही नफ़रत, हिंसा और युद्ध से जोड़ दिया गया हो, शांति और मानवता की बात करना ही असल साहस और असल देशभक्ति है. देश की प्रगतिशील जनता की यह जिम्मेदारी है कि वे इस घुटन भरे माहौल में स्पष्ट, सैद्धांतिक और निर्भीक स्वर में युद्धोन्माद का विरोध करें, और शांति, लोकतंत्र व जनहित के पक्ष में डटकर खड़े हों.
(‘वायर’ से साभार। लेखक अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं।)