नहीं होती कोई जात
मजदूर की
उसकी तो
होती है सिर्फ बिरादरी
जिसमें पलती है
बिना रसूख,
ग़रीबी , लाचारी और भूख ।
(2)
समभाव से बनाता है
एक मजबूर
मंदिर, मस्जिद,चर्च, गुरूद्वारा
और आम आदमी का घर,
उसके लिए
भगवान और आम आदमी में
नहीं होता कोई फर्क,
रत्ती भर ।
(3)
मिटाकर अंधकार
उगते सूरज की पहली किरण
फैलाती है
धरती पर उजास
और जगाती हैं
मजदूर के पेट में आग
जिसे बुझाने को
दिनभर वो करता है मजदूरी,
भूख है उसकी
सबसे बड़ी मजबूरी।
(4)
श्रम में होती आस्था
मजदूरों की
भरोसा है उन्हें
खुद की मेहनत पर
बिना मेहनत किये फिर
दिहाड़ी नहीं पकेगी
ऐसी पुख्ता है उनकी धारणा,
किसी सरकारी विभाग के
बड़े बाबू की तरह
नहीं आता उन्हें
ड्यूटी से ” बंक ” मारना।
– डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा
पो. सुजानगढ़ (राज.)331507
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