(आलेख : राजेंद्र शर्मा)
हाई कोर्ट के आदेश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और उनके सह-आरोपी बनाए गए कर्नाटक के भाजपा के नेताओं तथा ईडी अधिकारियों ने बेशक राहत की सांस ली होगी। कर्नाटक हाई कोर्ट ने उनके खिलाफ चुनावी बांड के नाम पर, अवैध हफ्ता वसूली के आरोपों की जांच पर अपने अंतरिम आदेश के जरिए फिलहाल रोक लगा दी है। आरोपियों में से एक, भाजपा नेता नलिन कुमार कतील की याचिका पर, अंतरिम आदेश में हाईकोर्ट के एकल पीठ ने उन्हें उक्त राहत दी है। याचिका में उस प्राथमिकी को ही चुनौती दी गयी है, जिसमें कतील व अन्य को नामजद किया गया है। याद रहे कि एक गैर-सरकारी संगठन की याचिका पर, एक विशेष अदालत के आदेश पर ही, निर्मला सीतारमण व अन्य के खिलाफ चुनावी बांड के नाम पर अवैध वसूली के आरोपों में कर्नाटक में एफआईआर दर्ज की गयी थी। स्वाभाविक है, अगले कदम के रूप में आरोपों के संबंध में जांच शुरू होनी चाहिए थी, जिसे फिलहाल हाई कोर्ट के आदेश ने कम से कम अगली सुनवाई तक के लिए रोक दिया है।
बहरहाल, इस तात्कालिक राहत से सुश्री सीतारमण और उनसे बढ़कर उनकी पार्टी के नेतृत्व के चेहरों पर मुस्कुराहट लौट आएगी, यह मानना मुश्किल है। इसकी वजहें दो हैं। पहली तो यह कि यह राहत फौरी यानी अस्थायी राहत ही है। अदालत से इस तरह की अस्थायी राहत मिलना तो आसान है, लेकिन एक अदालती आदेश के फलस्वरूप दर्ज की गयी एफआईआर को ही निरस्त करने का अदालती फैसला हासिल करना, लगभग नामुकिन है। यानी आरोपों पर जांच का वास्तव में आगे बढ़ना, नहीं बढ़ना अपनी जगह, लेकिन इतना तय है कि यह प्रसंग आसानी से ठंडा पड़ने वाला नहीं है और यहीं से भाजपा की परेशानी की दूसरी वजह शुरू होती है। इसका संबंध इस तथ्य से है कि इस पूरे प्रसंग ने, सत्ता के बल पर किए गए एक बड़े घोटाले के रूप में, चुनावी बांड के मुद्दे को फिर से नया कर दिया है।
कहने की जरूरत नहीं है कि सत्ताधारी भाजपा और उसके संघ परिवार ने कितनी मेहनत कर के और कितने संसाधनों को झोंककर, चुनावी बांड के मुद्दे का धीरे-धीरे सार्वजनिक बहस से गायब ही हो जाना सुनिश्चित किया था। जाहिर है कि इसमें सत्ताधारी दल की सबसे ज्यादा मदद तो सर्वोच्च अदालत ने ही की थी, जिसने अपने ऐतिहासिक फैसले में चुनावी बांड की पूरी की पूरी व्यवस्था को असंवैधानिक तथा गैर-कानूनी करार देकर खारिज तो किया था और इसके जरिए क्विड प्रो क्वो यानी चंदा लाओ और लाभ पाओ की व्यवस्था चल रही होने की संभावना मानी भी थी, लेकिन इसके बावजूद उसने अपने ही फैसले से उजागर हुई आर्थिक गड़बड़ियों की आगे किसी जांच का रास्ता खोलने से इंकार कर दिया था।
यह इसके बावजूद था कि स्टेट बैंक के चुनावी बांड के जरिए पैसे की यात्रा की पूरी ट्रेल जाहिर करने में असमर्थता जताने के बावजूद, चुनावी बांडों के सिलसिले में, इन बांडों की खरीद तथा राजनीतिक पार्टियों द्वारा उनके प्राप्त किए जाने की जानकारियों को उनके संदर्भ में रखकर, मीडिया में अनेक जानकार विश्लेषकों ने बड़े विस्तार से, सटीक जानकारियों व साक्ष्यों के साथ, गड़बड़ी के बेशुमार मामले उजागर किए थे। इसी क्रम में अवैध चंदा वसूली के लिए, जिसे मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने, जानी-पहचानी ‘हफ्ता वसूली’ का ही एक रूप बताया था, केंद्रीय एजेंसियों जैसे सीबीआई, ईडी, आयकर आदि के दुरुपयोग के भी कितने ही मामले सामने आए थे। केंद्रीय एजेंसियों की छापों समेत विभिन्न कार्रवाइयों और चुनावी बांड के जरिए चंदे के कई अलग-अलग पैटर्नों की भी पहचान की गयी थी। जहां कुछ मामलों में केंद्रीय एजेंसियों के छापे/ कार्रवाई के फौरन बाद, संबंधित कंपनियों द्वारा सत्ताधारी भाजपा को चंदा दिया जाना शुरू कर दिया गया था, वहीं कुछ और मामलों में पहले से चंदा दे रही कंपनियों ने छापे के बाद, उल्लेखनीय रूप से ज्यादा चंदा देना शुरू कर दिया था। और कुछ और मामलों में बार-बार छापे के जरिए कंपनियों से बार-बार पैसे की वसूली की जा रही थी। बेशक, यह सब उस सामान्य या सद्भावनापूर्ण वातावरण में हो रहे लेन-देन के ऊपर से था, जिसे ‘चंदा दो और धंधा लो’ कहा जा सकता है। यानी सरकारी ठेके आदि के रूप में सरकार से उपकार लो और बदले में बांड के जरिए चंदा देकर अपना कर्जा उतार दो।
इन तमाम असामान्यताओं के बरक्स इस चुनावी बांड भंडाफोड़ में ऐसी कंपनियों के सत्ताधारी पार्टी को बड़े पैमाने पर चंदा देने के मामले भी सामने आए, जिनके चंदे का किसी भी तरह से धंधे के हिस्से के तौर पर कोई तर्क ही नहीं बनता था। मिसाल के तौर पर कई मामलों में कंपनियों ने अपने कुल मुनाफे से कई-कई गुना ज्यादा चंदा चुनावी बांड के जरिए दिया था, तो कुछ मामलों में तो इन कंपनियों की कुल कीमत से भी कई-कई गुना चंदा दिया गया था, जो साफ तौर पर इन कंपनियों के खोखा कंपनियों की तरह काम कर रहे होने का यानी मनी लॉन्डरिंग का ही मामला नजर आता था। वास्तव में जब इस चुनावी बांड योजना के सिलसिले में, पहले से चले आते राजनीतिक चंदा कानून के इस प्रावधान को संशोधित किया जा रहा था कि कोई भी कंपनी, अपने पिछले तीन साल के मुनाफे का ज्यादा से ज्यादा 7 फीसद ही राजनीतिक चंदे के तौर पर दे सकती थी, और इस पूरी की पूरी पाबंदी को ही हटाया जा रहा था, तभी विभिन्न हलकों ने इसकी आशंका जताई थी कि यह चुनावी चंदे के नाम पर मनी लॉन्डरिंग का रास्ता खोल सकता था। दुर्भाग्य से इस मामले में बदतरीन आंशकाएं सच साबित हुई थीं।
इसके बावजूद, मोदी सरकार से और उसकी एजेंसियों से तो इन गड़बड़ियों की जांच और दोषियों को सजा दिलाने की उम्मीद की नहीं जा सकती थी। आखिरकार, इन गड़बड़ियों की सबसे बड़ी लाभार्थी तो सत्ताधारी पार्टी ही थी। इन उजागर हो गयीं गड़बड़ियों तक की किसी भी तरह की जांच कराना तो दूर रहा, वर्तमान निजाम ने तो चुनावी बांड की व्यवस्था का बचाव करने की ही कोशिश की थी। वास्तव में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस व्यवस्था को अवैध तथा असंवैधानिक बताकर, पूरी तरह से रद्द कर दिए जाने के बावजूद, आम चुनाव के दौरान खुद प्रधानमंत्री मोदी भी, न सिर्फ इसे ‘नेक नीयत से लाई गयी योजना’ बताकर इसका बचाव कर रहे थे, बल्कि इसके आलोचकों को भी यह कहकर चुनौती दे रहे थे कि आज जो विरोध कर रहे हैं, बाद में पछताएंगे!
बेशक, सत्ताधारी पार्टी के पर्दापोशी के इन सारे प्रयासों से और चुनावी बांड के मुद्दे को ही दबाने की उसकी कोशिशों से, यह मुद्दा कोई पूरी तरह से दब नहीं गया था। वास्तव में चुनावी बांड से जुड़े घोटालों की प्रतिध्वनि भी एक वजह थी कि आम चुनाव में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपने तमाम छाती पीटने और विपक्ष को भ्रष्ट साबित करने की अपनी सारी कोशिशों के बावजूद, सत्ताधारी पार्टी को विपक्ष पर भ्रष्ट का लेबल चिपकाने में कोई कामयाबी नहीं मिली थी। इसीलिए तो, स्वयं मोदी से लगाकर नीचे तक, सत्ताधारी गुट के सारे मुखों को, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अपने आजमाए हुए नुस्खे को ही आजमाना पड़ा था और समर्थक हिंदुओं को यह समझाना पड़ा था कि विपक्षी अगर सत्ता में आ गए तो, उनके मंगल सूत्र से लेकर आरक्षण तक, सब कुछ छीनकर मुसलमानों को दे देेेंगे। और इसके बावजूद, जनता ने सत्ताधारी पार्टी को बहुमत से काफी नीचे, 240 की गिनती पर ही रोक दिया।
फिर भी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि चुनावी मुद्दों की भीड़-भाड़ में, चुनावी बांड की गड़बड़ियों का मुद्दा कहीं दब-सा गया था। निर्मला सीतारमण व अन्य भाजपा नेताओं पर एफआईआर के प्रसंग ने इस मुद्दे को एक बार फिर सुर्खियों में ला दिया है। विपक्ष की बढ़ी हुई ताकत को देखते हुए, सत्ताधारी गुट के लिए इसे दबाना अब उतना आसान नहीं होगा। इस संदर्भ के अंतर के अलावा अब की स्थिति में एक महत्वपूर्ण अंतर और है। जहां पहले चुनावी बांड का मुद्दा भ्रष्टाचार के एक सामान्यीकृत मुद्दे के तौर पर ही सामने आया था, अब भ्रष्टाचार के इन आरोपों को केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण समेत सत्तापक्ष से जुड़े अनेक चेहरे मिल गए हैं। यह भ्रष्टाचार के आरोपों को और कंटीला बना देगा। सीतारमण के इस्तीफे की मांग साफ तौर पर इसी ओर इशारे कर रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)